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Showing posts from July, 2015

वासा अवलेह

कफयुक्त खाँसी जो पुरानी है , श्वास रोग , पार्श्व शूल,रक्त पित्त, बच्चों की कुकर खाँसी एवम् इस अवलेह का प्रभाव छोटी छोटी रक्त वाहिनियों पर पड़ता है । इस लिए रक्त पित्त, रक्त प्रदर खुनी बवासीर में , रक्तजकास में बकरी के दूध से प्रयोग करने पर लाभ मिलता है ।

सफ़ेद पानी का बहना (Leucorrhea)

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श्वेत प्रदर (Leucorrhoea) श्वेत प्रदर को सामान्य बोलचाल भाषा में सफ़ेद पानी की शिकायत कहा जाता है । 1 कम उम्र की बालाओं को - vulvar Leucorrhea 2 तरुण उम्र में- vaginal Leucorrhea 3 गर्भवती स्त्रियों में- cervical Leucorrhea                             uterine Leucorrhea चिकित्सा :- 1 कुक्कुटाण्डत्वक भस्म 125 mg मलाई या दूध से 2 प्रदरान्तक लौह, मिश्री और घृत 1 ग्राम शहद 3 ग्राम 3 प्रदरान्तक रस  2-2 गोली आंवला स्वरस और शहद से। 4 पत्रांगासव   30 ml + 30 ml पानी भोजन के बाद । Ayurvedic cure center

मुखपाक (Stomatitis)

Stomatitis मुखपाक (मुँह के छाले) चिकित्सा :- 1 चमेली के पत्ते, गिलोय, मुन्नका, धमासा, दारुहल्दी, हरड़, बहेड़ा और आंवला को जौ कूट कर  16 गुना पानी में उबाले आधा शेष रहने पर शीतल कर कुल्ला करे । 2 कामदुधा रस    5 ग्राम     प्रवाल पिष्टी    5 ग्राम     मुक्त पिष्टी      5 ग्राम इन सब की 40 पुड़िया बना कर 1-1 सुबह शाम शहद से। 3 आमलकी रसायन   3 ग्राम सुबह शाम 4 खादिरारिष्ट  15 ml + 15 ml पानी भोजन के बाद ।

साइनस (sinusitis)

साइनस, दमा, पुराना जुखाम, सर्दी आदि ले लिए Treatment :- 1 अग्निकुमार रस    लक्ष्मीविलास रस    संजीवनी वटी   तीनों की 1-1गोली कुनकुने पानी से दिन में दो बार। 2 अभ्रक भस्म        5 ग्राम     प्रवाल पिष्टी        5 ग्राम    सितोपलादि चूर्ण   25 ग्राम     श्वास कुठार रस    10 ग्राम     इन सब की 50 पुड़िया बनाना और 1-1सुबह शाम भोजन के 1 घंटे पहले ।   

कृमि रोग (WORMS)

कृमि जो पर्वतों, वनो, ओषधियों तथा जल -प्रधान क्षेत्रों या जल में रहने वाले, जो शरीर में प्रवेश कर हमे कष्ट देते है । कृमियों से मूलतः तीन श्रेणी के रोग होते है 1 जठरांत्र तथा पोषणज विकार ( Gastrointestinal and nutritional disorder) - अतिसार , शोथ आदि 2 पाण्डु (Anaemia) 3 कुष्ठ (Leprosy and other dermatoses ) चिकित्सा :- 1 कृमिमुद्गर रस   5 ग्राम    शंख भस्म।      5 ग्राम    नवायस लौह    10 ग्राम    इन सब को मिक्स कर 20 पुड़िया बनाना 1-1 सुबह शाम शहद से 2  संजीवनी वटी 2-2 विड़गारिष्टा के साथ ।   

अग्निमांध (Digestive insufficiency)

निम्न कारण से अग्निमंद होती है :-  असम्यक आहार, असमय भोजन, अपक्व आहार, अतिमात्रा में आहार, रात्रि जागरण, अति गुरु या अति रुक्ष भोजन, लंबे समय से व्याधि, असुखकर शय्या, वेग धारण, ईर्ष्या, भय, लोभ, शोक, मद, चिंता एवम् कफकारक आहार विहार आदि । चिकित्सा :- 1 अग्नितुण्डी    500 मिग्रा     क्रव्याद रस   225 मिग्रा     शंख भस्म।   500 मिग्रा      मिला कर दिन में दो बार शहद से 2 चित्रकादि वटी 2-2 सुबह शाम भोजन के पहले 3 द्राक्षारिष्ठ 20 ml और 20ml पानी भोजन के बाद।

श्वासरोग (अस्थमा Bronchial asthma)

श्वास कई व्याधीयो का एक लक्षण मात्र हो सकता है अथवा यह कई अन्य व्याधि का प्रधान एवम् एकमात्र लक्षण भी हो सकता है जैसा कि तमक श्वास रोग में होता है। लाक्षणिक दृष्टि से तमक श्वास Bronchial asthma रोग से एकदम साम्यता रखता है । तमकश्वास (अस्थमा) वायु प्राणवह स्रोतों में पहुच कर गर्दन तथा शिर को जकड़ते हुए कफ का पुनः उदिरण करके पीनस रोग उत्त्पन्न करती है। कफ द्वारा  अवरुद्ध वायु कंठ में घुर - घूर शब्द के साथ अति तीव्र वेगों वाले श्वास रोग को उत्त्पन्न करती है। इस रोग में रोगी अंधकार में प्रविष्ट हुआ सा( आँखों के सामने अँधेरा ) अनुभव करता है । बार बार कफ के वेग से जब तक कफ बहार न निकल जाये रोगी बेचैन रहता है कफ निकलने पर रोगी थोड़ी देर के लिए उसे आराम हो जाता है। श्वास पीड़ित होने के कारण लेटने पर भी उसे निद्रा नही आती है, रोगी को बैठने पर कुछ आराम मिलता है । उष्ण वस्तुऍ अनुकूल होती है उसकी आँखे निकली रहती है ललाट पर पसीना होता है । उसका मुँह सूखा ,श्वास बार बार लेता है और पुनः पुनः तेजी से छोड़ता है। बादल ठन्डे जल , शीत ऋतू और कफवर्धक आहार विहार से रोगी को कष्ट  बढ़ता है । चिकित्सा :- 1 श्

कास (खाँसी)

आयुर्वेद ग्रंथो में कास, सामान्य बोलचाल में खाँसी कहा जाता है । कारण :- जल्दी जल्दी खाने के कारण भोजन के कण या पिने के पदार्थ का आहार नली में न जा कर श्वास नली में चला जाना, रुक्ष पदार्थ का अधिक सेवन, मल, मूत्र छींक आदि के वेग को रोकना, खट्टी, कसैली वस्तु का अधिक सेवन, अधिक परिश्रम, अधिक मैथुन, ऋतू परिवर्तन,सर्दी का प्रभाव आदि। लक्षण :- खाँसी से पूर्व मुँह में तथा कंठ में काँटे सी चुभन होती है, किसी वस्तु को निगलने पर दर्द। वातज कास होने पर- ह्रदय, कपाल, कंठ, सिर,छाती में दर्द, स्वर का फटा फटा निकलना, बिना कफ की खाँसी यदि कफ निकलता भी है तो बड़ी कठिनाई से| वातज कास को सुखी खाँसी भी कहा जाता है। पित्तज कास में - पिले रंग का,पित्त मिला हुआ, मुँह सुखा, कड़वा और चरपरा हो जाता है । प्यास अधिक लगती, तन्द्रा,निद्रा अधिक आती है गले या कंठ में जलन और हल्का बुखार लक्षण मिलते है । कफज कास में-अग्नि का मंद होना, अरुचि, वमन, जुकाम, मुँह स्वाद का मीठा,कंठ में खुजली का अनुभव, अत्यधिक खाँसने पर गाड़ा कफ निकलना । क्षयज कास में -(राज्य यक्ष्मा TB के लक्षण ) क्षतज कास किसी चोट या अधिक परिश्रम से उ

प्रतिश्याय (जुकाम)

कारण :- ऋतुचर्या के विपरीत काम करना, अधिक क्रोध, अधिक बोलना, रात्रि जागरण, अधिक सोना, अधिक रोना, अजीर्ण या बदहजमी, मल मूत्र आदि के वेग को रोकना, ठण्ड लगना, पानी में भीगना, धुँए आदि के कारण एवम् नाक में धूल आदि का जाना, अधिक मैथुन इन सब कारण से मस्तिष्क में कफ का जमा होना, और बढ़ी हुई वायु जुकाम को उत्पन्न करती है । वात, पित्त और कफ एक साथ या अलग अलग भी इसको उत्पन्न करते है । लक्षण :- पूर्व रूप में छीके आना, सिर में भारीपन, अंगो में अकड़न, अंगो का टूटना, गले में खुजली का अनुभव, नाक व मुँह से स्त्राव, नाक से धुँए जैसी हवा निकलना ये सब जुकाम होने के पूर्व लक्षण है । चिकित्सा :- 1- अदरक रस 1ml और शहद 1ml मिलाकर चाटना । 2 भुने हुए चने जुकाम में फायदेमंद है । 3  अग्नि कुमार रस  2-2 गोली पानी से।

वातरक्त (Gout)

इस रोग में वात की प्रधानता रहती है । दूषित रक्त वात से मिल जाता है, उसे वातरक्त कहते है। कारण :- आहार विहार का मिथ्या प्रयोग , रात्रि जागरण , दिन में सोना (शयन) , अजीर्ण भोजन , अधिक पैदल चलना , मछली , शराब , सुखा मांस , खट्टे , चरपरे , गरम , चिकने तथा नमकीन पदार्थ का अधिक सेवन हाथी - घोड़े की सवारी आदि कारणों से वायु और रक्त दोनों कुपित हो जाती है । लक्षण :- इस रोग के प्रारंभ में अधिक पसीना या बिल्कुल कम पसीना आना , फोड़े फुंसी निकलना , भारीपन , मेद वृध्दि , खुजली , चकत्ते पड़ जाना , दाह हो कर शांत हो जाना , शोक , जंघा में कमजोरी । यह रोग पांवो की जड़ से और कभी कभी हाथो की जड़ से उठकर संपूर्ण शरीर में फेल जाता है । चिकित्सा :- 1 योगराज गुग्गुल 2 गोली गिलोय के क्वाथ से 2 चोपचिन्यादि चूर्ण  3 ग्राम भोजन के 1 घंटे पूर्व 3  आरोग्यवर्धनी वटी  3 गोली रात को 4  महामंजिष्ठारिष्ट   20 ml और 20पानी भोजन के बाद ।  

पक्षाघात और लकवा

आयुर्वेद में 80 प्रकार के वात रोग बतलाये गए है । कारण :-  रुक्ष, कटु, कसैले, तिक्त(कडवा) तथा शीतल पदार्थो का सेवन, कम खाने, अत्यधिक मैथुन, अधिक जागरण, मल मूत्र वेग को रोकना, चिंता, शोक-दुख, अधिक परिश्रम, व्रत उपवास अत्यधिक, अधिक सर्दी, द्रुतगामी वाहन की सवारी, रस रक्त आदि धातु का क्षय आदि कारण से वात प्रकोप होता है । चिकित्सा :- 1- दशमूलारिष्ट काढ़ा - 20 ml +20 ml       कुनकुना पानी 2 - अश्वगंधा चूर्ण     5 ग्राम रात्रि में 3 - वातचिंतामणि रस -5 ग्राम       प्रवाल पिष्टी        -5 ग्राम दोनों को मिक्स           कर 30 पुड़िया बनाना 1-1 सुबह शाम पानी से 4 - वात गजांकुश रस 1-1दिन में 2 बार पीपल       के चूर्ण साथ ऊपर से हरड़ का काढ़ा पीवे ।

अरुचि (अरोचक)

भूख लगने पर खाया हुआ भोजन का निवाला अच्छा न लगे, खाने की रूचि न हो, भोजन की बात मात्र से,  गंध आने और देखने से जो वितृष्णा हो उसे अरुचि कहते है । लक्षण:- अरुचि में मुँह का स्वाद कसैला, दन्त खट्टे, मुँह का स्वाद चरपरा तथा दुर्गन्धित, प्यास अधिक लगती है जलन बहुत होती है, भारीपन, ठंडक, थूक गिरना ,मोह, मूर्च्छा, जड़ता तथा मन की व्याकुलता आदि । चिकित्सा :- 1 शंख वटी - दिन में तीन बार 1-1 गोली 2 गंधक वटी - भोजन के 2 घंटे बाद 1-1गोली 3 द्राक्षासव -20 ml और 20 ml पानी भोजन के बाद